Monday, 19 September 2016

आत्म चेतना और शिक्षा संस्कृति



यह बात सदियों से प्रचलित है कि मानव शरीर पंच तत्वों से बना है यह शरीर प्रकृति का अंग हैं प्रकृति के अन्य जड़ और चेतन पदार्थो की तरह यह भी अणु-परमाणुओं से बना है।मनुष्य की चेतना ही उसे प्रकृति के अन्य अंगो से श्रेष्ठ बनती है। शरीर को जैसे प्रकृति का अंग माना गया है, वैसे ही शरीर को चलाने वाली आत्मा को परमात्मा का अंग मानने की रीत भी वैदिक युग से चली आ रही है। वह आत्मा ही है जो महसूस करती है। शरीर में तो सिर्फ प्रतिक्रिया घटित होती है। शरीर के अंगों या फिर रक्त या हॉरमोन में इस प्रतिक्रिया की छाप मिलती है।
आत्म तत्व शरीर के अन्य अंगों की तरह दिखाई नहीं देता, क्योंकि यह पदार्थ नहीं ऊर्जा है । यह ऊर्जा दिमाग के जरिए पूरे शरीर पर नियंत्रण रखती है । दिमाग से जुड़ा मानव शरीर का स्नायु तंत्र इसी ऊर्जा के अधीनस्थ होकर काम करता है । आत्मिक ऊर्जा का इस्तेमाल किस काम में कैसे हो रहा है यही बात जीवन की गति और दिशा को निर्धारित करती है । चेतना आत्मिक ऊर्जा का ही एक रूप है। मन और बुद्धि भी एब्सट्रेक्ट है, जो आत्मिक ऊर्जा का प्रयोग करके ही चेतना को जन्म देती है । विज्ञान में जब से सिर्फ प्रयोग के जरिया प्रमाणित तथ्यों को ही सत्य मानने की रीत चल पड़ी है, तब से शिक्षा क्षेत्र से भी आत्म तत्व के अध्ययन का प्रश्न मिटता चला गया है ।
सन 1920 के बाद सामने आए क्वांटम चेतना के तथ्यों ने इस बात को प्रकाशित किया है कि ऊर्जा के अनगिनत रूप होते हैं । जिन रूपों के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है, विज्ञान सिर्फ ऊर्जा के उतने ही रूप मानता है। बल्कि हकीकत तो यह है कि वह ऊर्जा ही है जो परमाणु में सक्रीय रहती है और परमाणुओं को जोड़ कर उसे पदार्थ का रूप देती है । और फिर पदार्थों में चेतना को जन्म देती है। दर्द का एहसास मनुष्य और पेड़-पौधों दोनों को होता है । लेकिन पेड़-पौधों में मुखर अभिव्यक्ति नहीं मिलती क्योंकि चेतन पदार्थ होने के बावजूद इन दोनों में व्याप्त ऊर्जा की प्रकृति में अंतर है । एक ओर विज्ञान का एक सीमा में बंध कर रह जाना और दूसरी ओर शिक्षा संस्कृति में आत्मा की अवधारणा पर विचार के प्रश्न की उपेक्षा ने वक्त के साथ लोगों की दृष्टि को संकुचित कर दिया । शिक्षा व्यक्तियों के देखने के नजरिए को प्रभावित करके सामाजिक स्तर पर किसी विचारधारा को प्रतिष्ठित कर सकती है शिक्षा क्षेत्र में आत्मतत्व पर विचार के उपेक्षित रह जाने से आत्मतत्व में स्थित ऊर्जा का ज्ञान समाज में नहीं फैल पाया। इसी से हिंसात्मक प्रवृत्ति,हताशा, व्यर्थता बोध, अवसरवादिता जैसी आत्मा के स्तर की तमाम समस्याओं को फलने फूलने की जमीन मिली।
ऊर्जा से चलने वाला मानव शरीर एक उपकरण मात्र है । इसे चलने वाली ऊर्जा को आत्मा कहते है। यही ऊर्जा प्राण बनकर भौतिक शरीर को सक्रिय रखती है और चेतना और विचार के जरिए जीवन को गति और दिशा देती है। शरीर का उपकरण दिमाग तो एक भौतिक पदार्थ मात्र है, जिसे आत्मा का कंट्रोल रूम कहा जा सकता है । महात्मा गांधी का कहना था कि व्यक्ति की सोच उसके कथन और उसके कर्म की दिशा अगर एक हो तो जीवन में आनंद का समवेश होता है। आत्मा की प्रकृति की उपेक्षा करके जब मनुष्य बाहरी सुख सुविधाओं की ओर दौड़ने लगता है, तब जीवन से आनंद तिरोहित होता जाता है । इस हालत में आत्मा तो प्राण रूप में शरीर में रहती ही है लेकिन उसके ऊर्जा रूप के प्रति अज्ञानता व्यक्ति की सोच को भौतिक स्तर की संकुचित गली में अटका देता है । इस ऊर्जा को पहचान कर उसका पोषण किए बगैर विचार चेतना एवं व्यक्तित्व में इसका प्रभाव नहीं दिखता ।
शिक्षा का व्यक्ति के चेतना के विकास संबंधी प्रश्न से अभिन्न संबंध है । वर्तमान शिक्षा में आत्मा या आत्मिक ऊर्जा को पहचानने और विश्व ब्रम्हांड के साथ उसके संबंध को समझाने से संबंधित विषय के अभाव के कारण नई पीढ़ी दिग्भ्रमित हो रही है । आज हिंसात्मक प्रवृत्ति,हताशा,व्यर्थता बोध,अवसरवादिता जैसी आत्मा के स्तर की तमाम समस्याएं आत्मशक्ति के संबंध में व्यक्ति की अज्ञानता के कारण ही उसे नैतिक स्खलन की राह पर ले जा रही है । आत्मा की अवधारणा को विकृत करके अन्धविश्वास को बढ़ावा देने में फिल्मों या किताबों की डरावनी कहानियों ने भी बहुत बड़ी भूमिका निभाई है।
आज आत्मा की अवधारणा पर चर्चा केवल दर्शनशास्त्र में होती है । जीवन को दिशा देने की ताकत रखने वाली यह आत्म चेतना संबंधी अध्याय वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में एक विषय विशेष का छोटा सा अंश है। जहाँ पूरा समाज नैतिकता के अभाव में बुरे असर से जर्जरित है, वहाँ इस समस्या से बाहर निकलने की कोशिशों को शुरू करने के लिए हथियार दर्शनशास्त्र में उपेक्षित पड़े हुए हैं । आत्मतत्व का अध्ययन और उसके जरिए अपने आत्म तत्व की प्रकृति की पहचान नई पीढ़ी की जीवन शैली और जीवन दृष्टि के विकास में सहायक बन सकती है । जीवन दृष्टि एक कम्पास की तरह उनके जीवन को दिशा देते हुए उसे आजीविका कमाने की ऐसी राह दिखा सकती है , जो समाज और संस्कृति की समृद्धि का भी आधार बन सके।
अंग्रेजी भाषा और संस्कृति को भारत में वरियता दिलाने के लिए मैकाले द्वारा भारत में चालू की गई शिक्षा व्यवस्था का प्रभाव आज भी बरक़रार है। इस बात से बहुत काम लोग वाकिफ है कि इस शिक्षा व्यवस्था को भारत में चालू करने के लिए लॉर्ड मैकाले ने क्या दलीलें दी थी। इस संदर्भ में लॉर्ड मैकाले द्वारा ब्रिटिश संसद में दिए गए वक्तव्य पर एक नजर डालना जरुरी है-
“मैंने भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक की यात्रा की । मुझे एक भी भिखारी या चोर नहीं दिखा। मैंने उस देश में इतनी समृद्धि, इतने ऊँचे नैतिक मूल्य और इतने प्रतिभावान लोग देखे कि मुझे नहीं लगता कि हम इस देश की रीढ़ की हड्डी, इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत को तोड़े बगैर इस देश को जीत सकते हैं। इसलिए मेरा प्रस्ताव है कि हम उनके प्राचीन शिक्षा संस्कृति को अपदस्थ करके भारतीयों में यह सोच भर दें कि जो विदेशी है जो अंग्रेजी है वही अच्छा है । और यही उनके अपने पास जो है, उससे बेहतर है। इस तरह वे अपना आत्म सम्मान, अपनी संस्कृति को खो देंगे और हमारे इच्छा अनुरूप हम इस राष्ट्र पर शासन कर पाएँगे। ”
 गौर करें कि सन 1835 से आज तक भारत की शिक्षा व्यवस्था एवं शिक्षण के विषयों और पद्धतियों में भले ही परिवर्तन आया हो लेकिन इसकी गहराई में आज भी लॉर्ड मैकाले द्वारा वर्णित मूल्य ही भरे हुए हैं ।  दिखावे से भरपूर अंग्रेजी संस्कृति शिक्षा प्रतिष्ठानों में जम कर बैठी हुई है। इस परिस्थिति को चुनौती देने के लिए आत्मतत्व से संबंधित विषय को विद्यालय स्तर से लेकर महाविद्यालय स्तर तक के पाठ्यक्रम में शामिल करना जरुरी है । सदियों से इस विषय से कट चुकी शिक्षा परम्परा को पुनः इससे जोड़ने के लिए खास पाठ्यक्रम की रचना करने में सक्षम विद्वानों और प्रभावशाली शिक्षकों की जरूरत है ।
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में नए पाठ्यक्रम में शामिल विषयों को अनावश्यक रूप से सरलीकृत कर देने की प्रवणता दिखाती है।  सरलीकरण के लिए अगर विषय की धार को ही भोथरा कर देना पड़े और शिक्षकों के पढ़ाने की सुविधा के लिए तथा विद्यार्थियों को लिखित परीक्षा हेतु तैयार करने के लिए कान्टेंट को कैप्सूल में भर कर निर्जीव बना देना पड़े तो विषय को पढ़ाने का कोई मतलब नहीं रह जाता । जो सरलीकरण विषय को बोधगम्य बनाने के उद्देश्य से हो और जो विषय के धार की रक्षा कर सके, वही सरलीकरण स्वीकार्य हो सकता है।  इस सरलीकरण का संबंध शिक्षण पद्धति की गुणवत्ता से है ।
विद्यालय स्तर से ऐसे पाठ्यक्रम को चालू करने के दौरान यदि अभिभावकों के लिए सार्वजनिक सेमिनारों का आयोजन हो और वहीं पाठ्यक्रम की पुस्तकें भी उपलब्ध हो पाएं, तो अभिभावकों में भी इस विषय के प्रति सचेतनता बढ़ पाएगी।  पुस्तकों के अलावा डिजिटल माध्यमों के जरिए भी इस विषय की सामग्री का उपलब्ध होना जरुरी है।  इस विषय की परीक्षा अगर मौखिक हो एवं खास दर्शकों की उपस्थिति में हो, साथ ही प्रस्तुति की रेकॉर्डिंग की भी व्यवस्था हो तो विषय को हल्के ढंग से पढ़ाने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है । इस तरह विद्यालय स्तर से ही तैयार हो रहे विद्यार्थी स्नातकोत्तर स्तर तक आकर स्वयं सार्वजनिक सेमिनार आयोजित करने के काबिल बन जाएंगे । महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय के विद्यार्थी स्कूल के साथ नेटवर्क स्थापित करके विद्यालयों में भी आत्मतत्व विमर्श से संबंधित सेमिनार आयोजित कर सकते हैं।  इस प्रयास से न सिर्फ समाज में प्रचलित अंधविश्वासों और दिग्भ्रमित करने वाले प्रवचनों को चुनौती दी जा सकेगी बल्कि आने वाले वर्षो में सचेतन नागरिकों की पीढ़ी भी तैयार हो पाएगी ।



Wednesday, 7 September 2016

ज्ञान का अधूरापन और आधुनिक समाज





आज शिक्षा को डिग्री से नापा जाता है और ज्ञान सूचना तक सीमित होकर रह गया है। ज्ञान की अवधारणा के सूचना तक सिमट कर रह जाने के कारण ही आज शिक्षक का काम कम्प्यूटर से करवा पाने की संभावनाएँ बुलंद हो गई हैं। हम ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जहाँ शिक्षा के स्तर में गिरावट आई है और शिक्षितों के आँकड़ों में वृद्धि हुई है। शिक्षितों की यह पीढ़ी नौकरी के अलावा आत्मनिर्भर बनने की दूसरी राह आसानी से खोज नहीं पाती। यही पीढ़ी रोजगार विनिमय के दफ्तर में भीड़ जमाती है और बेरोजगारी के कारण सरकार को कोसती है। इस समस्या की जड़ ज्ञान की अवधारणा के स्खलन में छिपा है।
ज्ञान तब तक किसी काम का नहीं जब तक वह दृष्टि में रूपांतरित न हो। ऐसी दृष्टि जो जीवन और समाज की बेहतरी के लिए व्यवहारिक कार्यों को अंजाम देने की ताकत रखती हो। यह दृष्टि उस सीमित दृष्टि से एकदम अलग है जिसका दायरा किसी विषय विशेष के किसी प्रसंग तक सीमित होता है। मसलन इतिहास के किसी युग का प्रसंग या फिर किसी लेखक की काव्यकला का प्रसंग। इस बात में कोई शक नहीं कि किसी विषय के एक छोटे से क्षेत्र को चुनकर किए गए अध्ययन से उस क्षेत्र की गहरी समझ पैदा होती है। लेकिन यह समझ जीवन और समाज को तब समृद्ध कर पाएगी जब इसे किसी वृहद् दृष्टि के आलोक में देखा जाएगा। ऐसी दृष्टि जो इस बात का आकलन कर सके कि अध्ययन किया गया विषय मानव जीवन, समाज और संस्कृति के विकास को किस दिशा में ले जा रहा है? ऐसी दृष्टि की भूमिका कम्पास की तरह होगी। दर्शनशास्त्र में ऐसी दृष्टि तैयार करने की ताकत है।
भारत का प्राचीन दर्शनशास्त्र बिखरी हुई दृष्टियों को एक सूत्र में पिरोकर जीवन और समाजोपयोगी ज्ञान पैदा कर सकता है। दर्शनशास्त्र से ऐसा काम लेने के लिए इसके सार को समझकर विषयों को समग्रता में देखने का नजरिया विकसित करना होगा। ऐसे नजरिए का पंख पाते ही यथार्थ को उस ऊँचाई से देखने की ताकत मिलेगी जहाँ से ज्ञात हो पाएगा कि यह यथार्थ जीवन और समाज के विकास को किस दिशा में ले जा रहा है। आज के युग की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि विश्व की प्रकृति और इसमें प्रचलित कार्यव्यापार को समझने की समग्रता में कोशिश नहीं की जाती बल्कि इतिहास, साहित्य, विज्ञान, गणित जैसे तमाम विषयों की अवधारणा को जेहन में अलग-अलग डिब्बे बनाकर बैठा दिया जाता है। आज सोच में इतना बिखराव आ गया है कि यह दिखाई ही नहीं देता कि डिब्बों में बंटी ज्ञान की गाड़ी बगैर इंजन के जिंदगी के प्लेटफार्म तक कैसे पहुँचेगी?
दरअसल बोध की सुकरता के लिए अध्ययन के विषयों को वर्गों में विभाजित करके देखना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है इतिहास, भूगोल, साहित्य, गणित, विज्ञान जैसे तमाम विषयों से हासिल ज्ञान को सूत्र में पिरोकर इससे विश्व के स्वरूप, प्रकृति, कार्यव्यापार और शक्तिकेन्द्रों का आभास पाना। क्योंकि व्यक्ति, परिवार, समाज, देश और राष्ट्रों में बँटी पृथ्वी ब्रह्मांड का अंग है तथा ब्रह्माण्ड की कई शक्तियाँ विज्ञान द्वारा प्रमाणित हैं और मनुष्य में भी उसी शक्ति का अंश है। प्राचीन दर्शनशास्त्र ब्रह्मांड को समझने की कुंजी है और विज्ञान द्वारा प्रमाणित तथ्यों से ब्रह्मांड के नियम का पृथ्वी और उसके प्राणियों पर पड़ने वाले प्रभाव को समझा जा सकता है।
दर्शनशास्त्र की तीन शाखाएँ हैं। पहली शाखा किसी विषय का ज्ञान हासिल करने की संभावनाओं, साधनों और पद्धति से संबंधित है। दूसरी शाखा ज्ञान के साधनों के जरिए विश्व को समझने से संबंधित है। और तीसरी शाखा नैतिकता के प्रश्नों से संबंधित है। इसमें दूसरी शाखा आज सबसे ज्यादा चर्चित है। यह शाखा विश्व की प्रकृति, आत्मतत्व की प्रकृति और शाश्वत की प्रकृति को समझने वाले सवालों से जूझती है। आज नौकरीपेशा या फिर बेरोजगार शिक्षितों में प्राप्त डिप्रेशन, पेशे से असंतुष्टि के भाव से यह महसूस किया जा सकता है कि व्यक्ति के शरीर में निवास करने वाले आत्मतत्व की एक खास सत्ता है। इस आत्मतत्व को समझने की कोशिश करना निश्चित रूप से शिक्षा का खास लक्ष्य होना चाहिए। शिक्षा के जरिए आत्मतत्व को उसकी प्रकृति के अनुरूप पुष्ट करना जरूरी है। यह पुष्ट आत्मतत्व व्यक्ति को अपने जीवन और समाज के लिए बेहतर राह खोजने के काबिल बना सकता है। आत्मा की प्रकृति को जाने बगैर बाहरी तत्वों की मदद से व्यक्ति में किसी काम को करने की इच्छा पैदा करने की कोशिश करना उल्टी गंगा बहाना है। आत्मतत्व की प्रकृति के प्रश्न को दरकिनार करके किसी काम में रुचि जगाने के लिए व्यक्ति में धन, ओहदे, नौकरी या किसी वस्तु का लोभ पैदा करना पड़ता है। ऐसा लोभ पैदा करना श्वान को हड्डी दिखाकर दौड़ाने के बराबर है। यह प्रवृत्ति इंसानों को श्वानों जैसा बनाकर छोड़ती है। आज विज्ञापन यही काम मनोविज्ञान के सहारे कर रही है। इस प्रक्रिया की ऐंटीथीसिसदर्शनशास्त्र की तिजोरी में बंद पड़ी है। आज नैतिकता के स्खलन और मानसिक शांति के लगातार ह्रास के इस दौर में आत्मतत्व को जानने का सवाल जरूरी हो गया है।
शाश्वत की अवधारणा आत्मतत्व के विकास के सावल को दिशा देने की ताकत रखती है। न्यूटन के समय और स्पेस संबंधी सिद्धांत में शाश्वत किसी मंच के उस बैक ड्रॉप की तरह है जो स्थिर रहता है। वह मंच पर चल रही गतिविधियों को कसने की एक कसौटी की तरह हमेशा विद्यमान है। इसे आदर्श सत्ता या ईश्वर का नाम देना गलत होगा। क्योंकि ईश्वर या आदर्श सत्ता की अवधारणाएँ सामाजिक विकास की प्रक्रिया में विकसित हुई है। और केवल कला वर्ग के चिंतन का अंग है। इस अवधारणा के लचीलेपन ने इसके अपव्यवहार को भी बढ़ावा दिया है। शाश्वत की अवधारणा ब्रह्मांड का आधार है। ब्रह्मांड के नियम के तहत जड़ और चेतन पदार्थ परमाणु से बने हैं। ब्रह्मांड के सारे क्रिया-कलापों की जड़ है ऊर्जा। पाँच तत्वों से बना यह मानव शरीर दरअसल एक इलेक्ट्रो-मैगनेटिक उपकरण है। प्राण दरअसल वह विद्युत है जो इसे संचालित करता है। विद्युत के कारण ही जैसे तार भीतर से गर्म हो जाता है ठीक उसी तरह प्राण के कारण ही शरीर गर्म रहता है। प्राण के निकलते ही शरीर ठंडा होने लगता है। नाड़ियाँ और धमनियाँ तारों की तरह हैं जिनमें रक्त के जरिए विद्युत बहता है। पंच तत्व के शरीर की मानसिक उपज सोच और प्रार्थना में परमाणु के जरिए कंपन पैदा करने की ऊर्जा होती है। इनका फल या प्रभाव इनके द्वारा कंपन पैदा करने वाली ऊर्जा के घनत्व पर निर्भर करता है।
इस लिहाज से देखें तो आज कल भलाई का जमाना नहीं रहायह कहने वाले हालात, सच्चाई और भलाई की प्रतिष्ठा चाहने वालों के सोच और इरादों के ढीलेपन के कारण ही पैदा हुए हैं। जड़ पदार्थों में ऊर्जा की स्थिति अलग रूप में होती है। किर्लियन फोटोग्राफी या जी.डी.वी कैमरा के जरिए जड़ या चेतन पदार्थ की ऊर्जा के इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक क्षेत्र की तस्वीरें ली जा सकती हैं। तस्वीर में यह क्षेत्र प्रकाश के रूप में दिखाई देता है जिसे साधारणत: औरा के नाम से जाना जाता है। किसी व्यक्ति के औरा (इलेक्ट्रो-मैगनेटिक क्षेत्र) का शक्तिशाली या कमजोर होना उस व्यक्ति की सोच, भावनाओं और विचारों की प्रकृति पर निर्भर करता है।
मनुष्य में स्थित आत्मतत्व में वह ऊर्जा है जो कंपन का आधार बनकर ब्रह्मांड की गति और लय से तादात्म्य स्थापित करके हालात को प्रभावित कर सकती है। तभी मनुष्य ब्रह्मांड का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। ब्रह्मांड की इस अद्भुत कृति में छिपी कस्तूरी को अपनी खुशबू फैलाने के काबिल बनाने की ताकत सिर्फ शिक्षा में है। शिक्षा के जरिए ही ब्रह्मांड के रहस्य को नई पीढ़ी को समझाया जा सकता है। दुर्भाग्य की बात यह है कि आज की शिक्षा ब्रह्मांड का ज्ञान पैदा करने के सावल से विच्छिन्न है। शिक्षा क्षेत्र में तो आज सिर्फ डिग्री अच्छे अंक पाने के उद्देश्य का बोलबाला है।
न्यूटन के शाश्वत की अवधारणा को आधुनिक विज्ञान के पिता आइन्सटाइन के सापेक्षता के सिद्धांत ने पीछे धकेलकर शाश्वत की अवधारणा को ही दृष्टि से ओझल कर दिया। अब ब्रह्मांड के कार्यव्यापारों को आधार देने वाली समय और स्पेस की अवधारणाएं भौतिक दृष्टि की मोहताज हो गई। समय, स्पेस और ऊर्जा की जो परिभाषाएँ विद्यालय से ही विज्ञान के जरिए विद्यार्थियों के जेहन में बैठाई जाती हैं वह इसी दृष्टि से प्रभावित है। समय और स्पेस को देखने का यह नजरिया इतिहास और साहित्य को देखने की दृष्टि को भी नियंत्रित करता है। इस दृष्टि से हालात को देखना दरअसल जमीनी स्तर से हालात को देखना है। इस स्तर से हालात की बारीकियाँ और कारण कार्य संबंध भले ही नजर आए पर इसके साथ ही हालात की विकरालता और व्यापकता का ऐहसास भी हमें घेर लेता है। हम समस्या की जड़ों को खोजते हुए पाताल तक पहुँच जाते हैं लेकिन जड़ों को पहचानने के बावजूद इन्हें उखाड़ने का उपाय नहीं दिखता। सामंती मूल्य, बाजारवादी मूल्यों की प्रकृति कुछ ऐसी ही है। जमीनी स्तर से विश्व और समाज को देखने वाले साहित्यकार चाहे सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक, किसी भी दृष्टि से काम ले आज के युग में उन्हें उपभोक्तावाद बाजारवाद की विकरालता ही नजर आएगी। इन्हें काटने का रास्ता इस स्तर पर मिलना संभव नहीं क्योंकि इसी स्तर पर शिक्षा, धर्म, संस्कृति, विज्ञान यहाँ तक कि दर्शन तक अपना प्रभाव फैलाकर बाजारवादी शक्तियों ने आत्मा की ऊर्जा को दबा कर रखा है।
प्राचीन दर्शनशास्त्र में ब्रह्मांड के नियमों के तर्ज पर विश्व को देखने का नजरिया देने की ताकत है। अन्य शब्दों में कहें तो यह दृष्टि को जमीनी स्तर से ऊपर उठाने की ताकत रखती है। इस स्तर से सत्य का एक दूसरा पहलू नजर आता है। यही स्तर भारत के तमाम मनीषियों की वैचारिक ऊर्जा का शक्ति केन्द्र रहा है। सांख्य दर्शन, वैदिक ऋचाओं की तिजोरी में बंद ज्ञान इसी स्तर पर विकसित हुआ है। इस स्तर से देखें तो विश्व ऊर्जा के खेल का जगत है। मृत्यु भी ऊर्जा के रूपांतरण की ही घटना है। पंचतत्व के शरीर में कैद ऊर्जा को ज्ञान के जरिए सतेज रखकर एक सार्थक जीवन जीया जा सकता है। प्राचीन काल से लेकर अब तक इतिहास, भूगोल, साहित्य, गणित, विज्ञान, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र जैसे तमाम विषय और आज कॉलेज विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले नए-नए विषय इंसान को उसमें स्थित ऊर्जा का प्रयोग जीवन और समाज को समृद्ध बनाने के लिए करने का ज्ञान किस तरह दे सकते हैं इसे कार्यशालाओं के जरिए निर्धारित करना वर्तमान दौर की बहुत बड़ी मांग है।
विश्व ब्रह्मांड की प्रकृति को समझने की पहल विद्यालय के पाठ्यक्रम में दृश्यमान प्रकृति के निरीक्षण के विषय को शामिल करके किया जा सकता है। प्राचीन दर्शनशास्त्र प्रकृति की गोद में पला है। इसमें विश्व ब्रह्मांड की प्रकृति को समझने का आधार प्रकृति निरीक्षण ही है। मनुष्य प्रकृति का ही अंग है और प्रकृति के अवयवों से खुद को जोड़कर देखते हुए उनकी और अपनी प्रकृति एवं क्षमताओं में साम्य और वैषम्य को महसूस करना मनुष्य की शिक्षा का अंग होना चाहिए। ऐसी शिक्षा से विद्यार्थियों के मन और मस्तिष्क का विकास प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करते हुए हो पाएगा। दृश्यमान प्रकृति को निरखते हुए ही मानव दृष्टि अपनी अन्त: प्रकृति के साथ विश्व ब्रह्मांड के संपर्क को समझने की ओर अग्रसर हो सकती है। इस प्रक्रिया से गुजरते हुए विकसित अंतर्दृष्टि आज विद्यालय, कॉलेज, विश्वविद्यालय में पढ़ाए जाने वाले विषयों को एक खास स्तर से देखते हुए उनके जरिए जीवन और समाज को समृद्ध करने की राहें खोजने में सक्षम हो सकती है।

क्वांटम चेतना और सत्य का अस्तित्व




आध्यात्मिक चेतना और विज्ञान के परस्पर विरोधी होने की धारणा को चुनौती देती हुई आज क्वांटम-चेतना की अवधारणा सामने आ गई है। मानव शरीर एक पदार्थ है जिसमें क्वांटम कण जटिल प्रक्रिया के तहत पैदा होते हैं और चेतना या विचार के रूप में महसूस किए जाते हैं। चेतना या विचार के जन्म की प्रक्रिया शरीर, दिमाग और क्वांटम कण से सम्बद्ध होने के कारण पदार्थ विज्ञान और जैविक विज्ञान के दायरे को एक साथ स्पर्श करती है। क्लासिकल पदार्थ विज्ञान में दिमाग को समानांतर स्थित कम्प्यूटरों की एक वृहद व्यवस्था के समान माना गया है। जिसका एक-एक बिंदु सूक्ष्म सूत्रों के जरिए स्पेस और समय के बिन्दुओं से जुड़ा हुआ है। क्लासिकल पदार्थ विज्ञान की सीमा तब दृष्टिगोचर होती है जब हम विश्वासों और संस्कारों को जन्म देने में विचार और दिमाग के पारस्परिक सम्बंध को समझने की कोशिश करते हैं। यहीं क्वांटम सिद्धांत की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।
इस बात का एहसास होना कि भौतिक जगत के पदार्थ सृष्टि, विकास और विनाश की प्रक्रिया से गुजरते हैं, चेतना के उस स्तर की बात है जिस स्तर पर दृश्यमान जगत के तथ्यों के जरिए सत्यों का एहसास होता है। लेकिन  ब्रह्मांड में ऐसे भी तत्व हैं जो अव्यक्त हैं जिन्हें ज्ञानेन्द्रियों या यंत्रों से पकड़ा नहीं जा सकता। इनके होने का स्पष्ट प्रमाण न मिलने के कारण इनका अस्तित्व क्लासिकल विज्ञान में स्वीकृत नहीं है। क्वांटम सिद्धांत वैज्ञानिक तरीके से उन्हीं के अस्तित्व का एहसास दिलाती है। अति सूक्ष्म होने के कारण इनके अस्तित्व को पकड़ने के लिए गणित का सहारा लिया जाता है। साहित्य और समाज में काल चक्र के प्रभाव से मुक्त, विशुद्ध ज्ञान और आनंद के आधार अव्यक्त सच्चिदानंद की बात मिलती है लेकिन इसे पाने या महसूस करने के लिए भक्ति, प्रेम और ज्ञान का रास्ता अपनाने की बात की जाती है। गौर करें कि विज्ञान जहाँ गणित के क्रान्क्रीट रास्ते को अपनाता है वहीं साहित्य एब्स्ट्रैक्ट का रास्ता चुनता है। इस रास्ते को भी इन्द्रियों के लिए बोधगम्य बनाने के लिए अवतारों की कल्पना की गई। इसे समाजशास्त्रीय स्तर पर अव्यक्त को पकड़ने का प्रयास कहा जा सकता है।
वैज्ञानिक दृष्टि से चेतना के स्तर की बातों को क्वांटम तत्वों के जरिए समझने की कोशिश की जा रही है। क्वांटम तत्वों की गति आलोक गति से तेज होती है। इसलिए चेतना के स्तर पर घटने वाली घटनाएं नहीं दिखाती। इसलिए भक्ति कहें या पूंजीवादी मूल्य दोनों अपने-अपने युग में फैलकर लोगों के दिलो दिमाग में जम गए लेकिन इनके फैलकर जम जाने की घटना दिखाई ही नहीं पड़ी। सिर्फ, लोगों के व्यवहार या आचरण से इनकी व्यापक रूप से उपस्थिति की सूचना ही मिल पाई। विज्ञान और समाज को जोड़कर देखते हुए कहें तो भक्तिकाव्य में प्राप्त सच्चिदानंदकी अवधारणा का संबंध क्वांटम स्तर पर गुणात्मक परिवर्तन लाने की कोशिश से था। इस परिवर्तन को लाने के लिए राहों के संधान की कोशिश भी भरपूर की गई। इस कोशिश से उपजी क्वांटम चेतना ही भक्तिकाल को स्वर्ण युग होने का ताज पहनाती है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो समय के किसी बिन्दू पर किसी निश्चित उद्देश्य और गतिमयता के साथ निवेश की गई मानसिक ऊर्जा चैतन्य के उदय का कारण बनती है। भक्ति काव्य का लक्ष्य और लक्ष्य को पाने के प्रयास की दिशा एकदम स्पष्ट थी। इसलिए अव्यक्त को पाने का लक्ष्य बलिष्ठ क्वांटम चेतना के विकास का आधार बना।
मानव शरीर एक पदार्थ है। पदार्थ से ऊर्जा पैदा करके ऊर्जा के जरिए चेतना का विकास और चेतना से ब्रह्म चेतना के विकास के स्तर तक पहुँचकर मनुष्य पूर्णता को प्राप्त करता है। यह ब्रह्म ईश्वर या देव नहीं है। यह ब्रह्म प्रकृति की वह अव्यक्त सत्ता है जिसका अंश प्रकृति में सर्वत्र मिलता है। इसलिए ब्रह्मांड से लेकर परमाणु तक में प्रकृति का एक ही नियम दिखता है। ग्रह सूर्य की परिक्रमा करता है और उपग्रह ग्रह है। सूक्ष्म स्तर पर देखें तो परमाणु में इलेक्ट्रॉन उसके नाभिक के चारों ओर विशिष्ट कक्ष में घूमता है। क्वांटम सिद्धांत के जरिए इलेक्ट्रॉन के ऊर्जा के स्तर का अंदाजा लगाया जा सकता है। ब्रह्माण्ड की गतिविधि हो या परमाणु की आतंरिक गतिविधि इनमें ऊर्जा ही सर्वत्र व्याप्त दिखती है। विचार भी ऊर्जा की ही उपज है जो चिंतन प्रक्रिया से पैदा होती है। विचार का पैदा होना क्वांटम स्तर की घटना है। अर्थात् जो सर्वत्र व्याप्त है और जगत को गतिमान रखने का आधार है उसे समाज में भले ही ईश्वर कहा जाए लेकिन वह व्यवहारिक स्तर पर ऊर्जा ही है।
सन् 1920 तक विज्ञान ने चेतना के विषय को दृश्यमान ब्रह्माण्ड के विषय से अलग रखा था। लेकिन सन् 1920 में क्लासिकल मेकैनिक्स से क्वांटम मेकैनिक्स की ओर कदमों ने इस पुरानी प्रथा को तोड़ दिया। आज क्वांटम सिद्धांत के जरिए चेतना की संरचना को समझते हुए भौतिक सत्यों को नए सिरे से समझने की कोशिश शुरू हो गई है। यह कोशिश शरीर आत्मा के संबंध को भी पुनर्व्याख्यायित करने में सहायक सिद्ध होगी। क्वांटम सिद्धांत में ऊर्जा की अलग-अलग इकाइयाँ होने की बात की जाती है। इसके अनुसार सृष्टि के आधारभूत तत्व कण या फिर तरंग दोनों रूपों में सक्रिय हो सकते हैं। इन तत्वों की गति और व्यवहार में नियमितता नहीं होती। क्वांटम तत्वों की स्थिति, गति और दिशा को भौतिक स्तर पर समय के किसी बिंदु पर समझ पाना असंभव है। क्वांटम सिद्धांत से सूक्ष्म जगत और स्थूल जगत के बीच के विशाल अंतर का पता चलता है।
आइन्सटाइन ने ही क्वांटम मैकानिक्स की बात छेड़ी थी। इसी के साथ फोटोन की व्याख्या भी की तथा शोषण’, ‘स्वच्छंदतथा विकिरण के नियंत्रित उद्गारकी अवधारणाएं भी सामने रखी थीं। लेकिन वे क्वांटम के एकाएक बदलने वाले स्वभाव को कभी स्वीकार नहीं कर पाए। उनका यह कथन कि ईश्वर भले ही सूक्ष्म है लेकिन वह पासे का खेल नहीं खेलता’ (subtle is the Lord, but he does not play dice) इस बात का प्रमाण है। यहाँ क्वांटम कणों या लहरों को ही उसकी सर्वव्यापी शक्ति के कारण ईश्वर की संज्ञा दी गई है। वॉन न्यूमैन, विगनर तथा अन्य कई विचारकों का मानना है कि अगर दिमाग में घटित होने वाली क्वांटम स्तर की घटनाओं और विचारों के पास्परिक संबंधों को देखा जाए तो दिमाग और मन के दोहरे स्वरूप को उद्घाटित करने वाला सिद्धांत विकसित किया जा सकता है।
सूक्ष्म और स्थूल दोनों स्तरों पर ब्रह्माण्ड की अलग-अलग सत्ताएँ लगातार अलग-अलग ढंग से एक दूसरे से संपर्क स्थापित कर रही हैं। यह कार्य पदार्थ विज्ञान के नियमों के तहत ही हो रहा है। इस प्रक्रिया में समय और काल के व्यवधान का प्रश्न मायने नहीं रखता। क्योंकि क्वांटम स्तर के कणों की गति और दिशा का अंदाजा लगा पाना प्राय:  नामुमकिन है। चेतना का अस्तित्व इसी स्तर पर मिलता है। नोबेल पुरस्कार प्राप्त पदार्थ वैज्ञानिक प्रोफेसर मैक्सवार्न और प्रोफेसर फ्रांक विल्जेक ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि क्वांटम संबंधी सिद्धांत अद्वैत विज्ञान की मांग करता है। जिसमें प्राकृतिक दर्शन को भी शामिल किया जाना जरूरी है। अन्यथा चेतना संबंधी समस्याओं का समाधान निकाल पाना मुश्किल है। चल और अचल सत्ता के अस्तित्व के रहस्य की व्याख्या अद्वैत विज्ञान के सर्वव्यापी क्वांटम चेतना के जरिए ही की जा सकती है। गौर से देखें तो बाजारवादी मूल्यों ने पहले बुद्धि पर कब्जा जमाकर चेतना को विकृत कर दिया, और इच्छा को हवा देकर जनमानस में कब्जा जमा लिया। जब तक बाजारवादी और सामंतवादी मूल्यों के घालमेल की प्रकृति को समझकर विज्ञान सम्मत ढंग से क्वांटम स्तर पर प्रभाव पैदा करने वाली कार्य प्रणाली के जरिए मानवतावाद को प्रतिष्ठित करने का प्रयास नहीं किया जाएगा तब तक विश्व को बाजारवाद के गिरफ्त से मुक्ति दिला पाना मुश्किल है।